4.2.15

कवितांए तितिक्षा जी की और टिप्पणी तुषार धवल जी की हैं।

मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ और
टिप्पणी प्रस्तुत है....

कविताएँ

1 चले आना

चले आना जब मेरी याद आए
चले आना जब दिल भर आए
चले आना जब कोई पास न हो
चले आना जब कोई राह न मिले
चले आना गर कुछ तुम्हारे पास न रहे
चले आना जब सुकून तलाशते थक जाओ
चले आना
चले आना
चले आना कि तुम्हें तुम्ही से मिला सकूँ
वो तुम जो मुझमें बसते हो....


2 अनकहे शब्द

शब्द चले गए
कई दफा की गई
नाकाम कोशिशों से हारकर
रोये-बिलखे, चीखें
सब अनसुना किया गया
किसी मुख द्वारा व्यक्त किये जाने को आतुर
उनका अव्यक्त रहना नियति बना दिया गया
आखिर
वे चले गए
बिना किसी आहट के
और छोड़ गये
मूक इंतज़ार
अपने लौट आने तक...


3   माँ

काश माँ होती
सृष्टि के सारे नियमों के विरुद्ध
मिलने आती

स्नेहपूर्ण स्पर्श करते ही
बरसों से ना आई मीठी नींद
पलों में आ जाती

प्यार भरी मुस्कान से
दिन की सफल शुरुअात होती
इस तरह उसके होने
या न होने की अहमियत को
बेहतर जानते हुए
जीवनरस ले पाते

बहुत कुछ बच जाता फिर

टूटने और टूट जाने से..


4  उलझन

बड़ी उलझन है
रिश्तों में
निभाने से ज्यादा
उन्हें चुनने में
किसी एक के लिये
दूसरे का बलिदान

कहीं परिवार के लिए
प्यार का बलिदान
कहीं प्यार के लिए
परिवार का
बड़ी उलझन है

कहीं रीती-रिवाजों का झमेला
कहीं समाज की बेड़ियां
देना पड़ता है बलिदान
बड़ी उलझन है

एक तरफ नौकरी की हार
दूजी और पैसों की मार
देना पड़ता है बलिदान

समाज से डरती स्त्री
और उसके स्त्रीत्व की असुरक्षा
देना पड़ता है बलिदान

तोड़ दे गर बेड़ियाँ
भुला दे गर रीती-रिवाज़
उसकी इस लड़ाई में
खड़ा नहीं समाज

अस्वीकृति है भाग्य में
साहस गर वो कर बैठे
कोई साथ न दे तो
देना पड़ता है बलिदान...


5 आत्ममंथन

आत्म मंथन करना
हर मोड़ पर
सही गलत के पैमाने पर तोलना विचारों को
किसी एक बात पर अटकना मन का
लगातार विचारना कई पहलुओं पर
दिनों दिन चलता मंथन
और निर्णय न ले पाने की विवशता
बढ़ते हुए इस बोझ से मुक्ति पाने
खुद को जिंदादिल बनाए रखने को
उठते कई बार कदम
जो न सही है न गलत
है बस एक आखरी आस
किसी पेड़ पर लगे आखरी पत्ते की तरह..
०००
04:59, Feb 2 - Satyanarayan:

टिप्पणी                                                                                  

पहली झलक में ही एक चीज़ जो साफ नज़र आती है वह यह कि इस कवि में कवित्त की एक नैसर्गिक सम्पदा है। मन पर उठते भावों और विचारों की अन्तर्लय को समझने की एक 'इन्ट्यूटिव' समझ है। ये तथ्य रूप में इन कविताओं के शिल्प और शब्दों के चयन में झलक जाते हैं।
निश्चय ही कवि के ये शुरुआती दिन हैं। सूरज जैसे जैसे उठेगा, उसका ताप भी बढ़ेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। यहाँ चन्द और बातें हैं जिनके प्रति सतर्कता कवि को और अच्छी कवितायें दे सकती हैं। मसलन,

'चले आना' कविता के जन्म लेने के पहले की हड़बड़ाहट में लिखी गई प्रतीत होती है। यहाँ 'चले आना' का बार बार दुहराव और हर 'चले आना' के बाद फीका सा कोई वाक्य अपने ऊपर फिल्मी या सस्ती शायरी का प्रभाव दिखाता है। 'चले आना' के दुहराव में कसाव या तनाव पैदा नहीं हो सका है क्योंकि ऐसे विषय की प्रेम सिक्त कविता की यह आन्तरिक माँग होती है कि वह भावों के वेग पर उमड़े। हृदय से उठती पुकार का एक थके हुए मन ने जैसे यहाँ बुद्धि के जोर पर सिर्फ अनुवाद भर कर दिया है। उसे तराशा नहीं है। कवि थोड़ा सब्र से अपने भीतर उतरे, उन भावों को, उनकी ऊष्णता को महसूस करे तो निश्चय ही अभिव्यक्ति और प्रखर हो जायेगी।
लेकिन फिर भी, यह अवश्य कहा जाना चाहिये कि इस कविता में कवि ने एक आन्तरिक लय हासिल कर लिया है और उसे अपनी अभिव्यक्ति में तब्दील भी किया है। यह एक अच्छा प्रयास है।

'अनकहे शब्द' एक बेहतर कविता है। यहाँ कवि ने अपने भीतर अधिक झाँका है, उसे महसूस भी किया है। जीवन में बहुत बार हठात् ही कोई चला जाता है और बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। एक मूक इन्तजार अपने उन्हीं शब्दों की उलझनों को लिये बैठा रहता है। इसकी खलिश और ख़ला की अभिव्यक्ति अच्छी हुई है।

माँ पर अमूमन हम सबने कवितायें लिखी हैं। हमारे काव्य पूर्वजों से ले कर हम तक और हमारे बाद भी कविता में माँ की सनातन उपस्थिति बनी रहेगी।
              'बहुत कुछ बच जाता फिर
               टूटने और टूट जाने से'
इस कविता का एक ताकतवर वाक्य है जो माँ की कमी को झेलते मन की हताशा को बड़ी खूबी से समेट लेता है। यह एक अच्छी कविता है।

'उलझन'  कविता में कवि अपने दिमाग में ही जैसे भुनभुना रहा/ रही है। ठीक है, ये उलझने हैं, पर क्या सिर्फ इतना ही कह देने भर से कविता बन जायेगी ? 'कहीं परिवार के लिये... बड़ी उलझन है' एक अत्यन्त सतही अभिव्यक्ति है और एक चलताऊ किस्म की मंचीय कविता (जैसे 'सब' चैनल के 'वाह वाह' वाली बेहद सस्ती कविताओं ) के प्रभाव में उगी हुई लगती है। इस कविता पर कवि/ कवयित्री को फिर से काम करने की आवश्यकता है।

'आत्ममंथन' अच्छी कविता है। इस कविता में भी मन की कशमकश पर कवि/कवयित्री की उंगली सही पड़ी है। इसमें अपने भीतर के ऊहापोह के भाव से एक तालमेल बन पाया है और यह कविता पाठक के मन को अपनी तरफ खींचती है।

कुल मिला कर यह एक अच्छा प्रयास है । स्पष्ट है कि कवि नया है और ये लिखने के शुरुआती दिन हैं। एक सुझाव देना चाहता हूँ। कवि को 'अपने' स्वर की तलाश और शिनाख्त करनी होगी। बाहर बहुतेरी आवाज़ें हैं और उनके शोर का आवर्तन भी बहुत है। इन सबमें, थोड़ा ठहर कर अपने मनोभावों, चिन्तन और अपने मूल स्वभाव में डूबना होगा, मद्धिम आँच पर पकने देना होगा। यहीं वह सम्पदा मिलेगी जिसे कविता कहते हैं। एक और बात, मेरी यह राय है कि अच्छी कविता में भाव और विचारों का सन्तुलन बहुत आवश्यक है, यानि हृदय और मस्तिष्क का। कवि को विचारों के स्तर पर पुख्ता होने के लिये बहुत अध्ययन करना चाहिये, लगभग हर तरह के विषय पर। ये विचार कवि के व्यक्तित्व को गढ़ेंगे और उसके भावों में जब डूब कर निकलेंगे तो कविता एक ऊँचाई हासिल कर लेगी।
फिर भी, हम सभी यहाँ सहमत होंगे ही कि कवि ने बहुत अच्छा प्रयास किया है। उन्हें बहुत बहुत बधाई और उतनी ही शुभकामनायें।

कवितांए तितिक्षा जी की और टिप्पणी  तुषार धवल  जी की हैं।
31.01.2015


आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कहानी प्रज्ञा पाण्डेय जी की है..और टिप्पणी जयश्री जी की है

मित्रो आज आपके बीच कहानी - कछार प्रस्तुत है...और उस पर टिप्पणी भी....पहले टिप्पणी पोस्ट कर रहा हूँ...
और फिर..कछार

टिप्पणी                                               

स्त्री जीवन की विडम्बनाओं और विसंगतियों को एक बहुत ही सहज भाषा-शैली में उठाती है यह कहानी। ग्रामीण परिवेश में व्याप्त स्त्रियों की आपसी बातें, परस्पर ईर्ष्या, कानाफूसी और हास-परिहास के बीच एक स्वतंत्रचेता स्त्री के प्रति पारंपरिक समाज के पूर्वाग्रहों को बिना किसी अतिरिक्त तामझाम और आडम्बर के रेखांकित किया जाना कहानी का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन स्त्रियों की परस्पर बातचीत के बीच यदि रूपा और दुखंता फूआ के मनोविज्ञान को भी गहराई से विवेचित किया जाता तो कहानी ज्यादा प्रभावशाली होती। ग्रामीण परिवेश और वहां की बोली-वाणी का वर्णन जीवंत है। भाषा, परिवेश, बहाव, पठनीयता सब कहानी के लिए जरूरी होते हैं, इस कहानी में हैं भी। पर कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं होती। परिवेश और मन के द्वंद्वों को कहानी में और जगह मिलनी चाहिए थी, जिसके अभाव में यह एक साधारण कहानी बन के रह गई है और कुछ नया नहीं कह पाती।
०००
06:57, Jan 30 - Satyanarayan:

कहानी कछार

                       पूरा गांव इंतज़ार कर रहा था उसमें  भी ख़ासतौर  पर  स्त्रियां।उन्हें रूपा के ससुराल से वापस  भेज दिए जाने का इंतज़ार था।यह दृढ विश्वास स्त्रियों के मन में रूपा के  विवाह केभीसालों पहले से  उसके प्रति बना हुआ था किकिसी भी दिन रूपा ससुराल से भगाई जा सकती है । पुरुष भी कभी-कभी स्त्रियों के तिखरवाने पर हामी भर देते थे या अक्सर  उन्हें  झिड़क कर या  अनसुना  ही करके घर से निकल जाते थे। वे शायद इस मामले में या   रूपा के बारे में उतनी गहराई से नहीं सोच पाते थे न ही इतनी जांच पड़ताल   करने में अपना दिमाग  खर्च करते थे ।  स्त्रियां भयवश  शायद  कुछ अधिक सोचतीं थी या उनके अपने दुःख उन्हें ऐसा सोचने के लिए बाध्य करते थे, क्या मालूम ! मगर बात की बात में  गांव की तेज़-तर्रार   लड़कियों को   स्त्रियां मर्दमार कहा करतीं थीं.रूपा के लिए तो यहस्त्रियों का तकियाकलाम ही था - "अच्छी भली का तो गुजारा मुश्किल है, इस मर्दमार लड़की का गुज़ारा भला ससुराल में कहाँ  होने वाला है" ।
 दूसरी कहती " ससुराल में साल  भर बीत  जाए तो बड़ी बात होगी '।  तीसरी  कहती- " जो किसी से नहीं हारता वह अपनी संतान से हारता है। देखती नहीं हो राम नरेश की मेहरारू आँख मिला  कर बात   नहीं करती है " ।
चौथी  कहती -"यहाँ थी तो यहाँ नाक में दम किया ।  माँ बाप की  नाक कटा के गांव भर  में घूमती रही और वहाँ  तो बिना सास का घर ही  मिल गया है ! सुना सास  नहीं हैं, न ही घर में कोई दूसरी स्त्री है और इसके अंदर स्त्री के  कोई गुण  मौजूद हैंनहीं।  अलबत्ता अवगुण ही भरे हैं "
  पांचवी कहती  "ससुराल  में  ये रह  पायेगी ?  घर को सराय बना  देगी! बर्दाश्त करेगा कोई इसे ?घर से निकाल देंगें सब।"
छठी  कहती -"यहाँ तो छुट्टा सांड थींवहाँ ये पांव  देहरी के बाहर भी  न निकाल पाएंगी"।सांतवी कहती -" पता नहीं महतारी कैसी थी. वह भी नैहर में  ऐसी ही रही होगी   तभी तो बेटी को रोक नहीं पायी।  वह तो राम नरेश जैसा आदमी था जिसनेइसकोनाधा,  नहीं तो एक तो रूप रंग और गढ़न अच्छी ही थी ऊपर से इतना दहेज़  लेकर आयी थी कि किसी की  मजाल न होती बोलने की।   तभी छठवीं  फिर कह देती -" सच पूछो तो राम नरेश   भी तो मौगा निकले जो हरदम अपनी मेहरारू केहीगुन   गाते रहते हैं"।
सातवीं फिर  कहती -"पूरा गांव थू थू करता है लेकिन रूपा की माँ के ऊपर कोई असर  है कहीं । बेटी  कभी किसी लडके के साथ पकड़ी जाती है तो कभी किसी के साथ। गांव भर में बात उड़ जाती है और इनको जैसे कुछ मालूम ही नहीं है। बेटी कोदुनिया कुछ भी कहे   पर महतारी पर कोई असर ही नहीं होता  ।  क्या मजाल जो बेटी पर कभी  एक थप्पड़ भी उठाया  हो।  उलटा ये खा ले, वो खा ले करती रहती है " सबेरे सबेरे दुखंता फुआ की  चौपाल में यह पंचायत अपनी   खुमारी  में  लहरा रही थी .
        बस दो बरस  पहले की ही बात तो थी।सबेरे चार बजे  से ही गांव भर  की  स्त्रियां  अलस उत्सुकता लिए सुदर्शन मिसिर  के घर की ओर चली जा रहीं थीं ।  कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें या उनके पदचापों की आवाज़ के साथ पायल के घुंघुरुओं की  छन-छन  की आवाज़ के सिवा और कोई आवाज़ नहीं।  भोर से धुले चमकते हुए तारों की छांव पूरे गांव पर थी ।  उजाले की सुनगुनी शुरू हो गई थी । सुदर्शन मिसिर के घर के सामने घर के जवान लडके  जो रात भर में  दो घंटे सोकर जाग गए थे  बारात के सुबह के नाश्ते और विदाई के सामानों की  तैयारी में व्यस्त थे । औरतें चुपचाप खुले दरवाजे से दालान में घुसती घर के भीतरी हिस्से में दाखिल होती  जा रहीं थीं। आँगन के बीच में पियरी के ऊपर लाल बनारसी गोटेदार  चादर ओढ़े  रूपा  बैठी है। चुपचाप  नीचे देखती हुई ,किसी सोच में डूबी हुई। सोने के मांग टीके का रंग, बड़ी सी नथनी का रंग , उसकी पियरी का रंग और उसकी  नरम-नरम गोरी  देह का रंग, तीनों एकसार हैं। जैसे तारों को आसमान में छोड़कर चाँद धीरे से सुदर्शन मिसिर के आँगन में आ बैठा था।
                     यह  वही रूपा है यह पहचानना कठिन था । और ससुराल  जाती रूपा को याद आ  रहा था  फकीरे। फकीरे के साथ गांव की कोई बँसवारी , गांव का कोई  ऐसा पेड़ रुख नहीं ,  गांव की  कोई  गली कोई पोखरा, तालाब नहीं, जो छूट गया  हो।वहाँ कहाँ मिलेगा फकीरे ! खेलते-खेलते दांव ही  भूल गयी रूपा।जैसे आस्मां  छूते छूते रह गई। अचानक जिंदगी  शादी के सेवार में  फंस  गयी। उसने गांव की बहुत सी लड़कियों को विदा होते ससुराल जाते देखा था लेकिन उसके साथ भी यही होगा यह तो दूर दूर तक भी नहीं  सोचा था ।
         रूपा को वह शाम याद आ रही है जब बाबा ने  माँ से कहा था- "घर परिवार बहुत अच्छा है,पूरा परिवार रूपा के मन के माफिक है. किसी   दबाव में नहीं रहना होगा इसको . अब ब्याह की उम्र भी हो रही है,ऐसा घर-वर फिर मिले कि न मिले"। उसपर  लगन लग गयी ! घर से बाहर आने-जाने के लिए अम्मा ने  मना कर दिया । फकीरे , दीपक और राधेश्याम   उसके  सखा मिलने आये थे। तीनों उदास थे  रूपा उनसे भी अधिक उदास थी । अब  हमेशा के लिए उसका खेल बंद हो गया।यह कौन सी बात हुई। ससुराल में न पेड़ पर चढ़ेगी न लखनी पताई खेलेगी , न कबड्डी।  लेकिन बाबा कहते हैं- बेटी, एक दिन हर लड़की की  ज़िंदगी में ऐसा होता है जब  बहते-बहते अचानक उसकी धार बदल  जाती है लेकिन तब भी उसका लहलहाना घटता नहीं है। किसी और  जमीन पर  बहती है वह और धीरे धीरे वही उसका  ठौर  हो जाता है।नैहर तो लड़की की जिंदगी का कछार है .
        "सब ठीक है, वहाँ जाकर तुमको अपने गुन से सबका दिल जीतना होगा।  मेरी बेटी ऐसा कर लेगी "कहते कहते बाबा की आवाज रुँध क्यों जाती है !वह कहना चाहती थी पर जाने क्यों रुक गयी कि बाबा मेरा खेल ! अम्मा चुपचाप वहाँ से हट गयीं थीं। अजीब सा बिछोह था जिसमें एक  उछाह था।घर झंकृत था ।
                      औरतें आँगन में  बैठती जा रहीं हैं। औरतों की  इतनी बड़ी संख्या की वजह है नहीं तो सबेरे ही तो सभी ज़रूरी काम निपटाने होते हैं जिन्हें छोड़कर औरतें यहाँ आ गयीं हैं।   बदनाम और बदचलन   रूपा   को कैसा घर वर मिल रहा है यह देखने आने के लिए यह संख्या वृद्धि हुई है।  हर घर से दो जनी    नहीं तो  किसी घर सेतीन  जनी भी।  नीरवता में कोई खुसफुसाहट मुखर हो जायेगी इस लिए सबनेभीगी-भीगी आँखों के साथएक बनावटी धैर्य  भी ओढ़ रखा है।आजरूपा की  विदायी है।  ५। ३०  का मुहूर्त निकला है। साज सामान तैयार है।  दूल्हा आँगन में आने वाला है। रूपा  और  सिमट गयी है।  कई जोड़ा आँखें   देखने में लगी हैं कि देखें रूपा  में लाज का प्रतिशत कितना है। उनकी निगाहों में रूपा की   सुंदरता ऊपरी त्वचा भर है।  लेकिन चमड़ी से  घर नहीं चलता है।  विदाई की बेला पास आती जा रही है। रूपा  की  माँ रोते-रोते खोइंचा भरा रहीं हैं।  दूब , हल्दी, अक्षत  ,पैसा  पांच बार रूपा  के आँचल में डालकर माथे पर टीकते टीकते उमड़  पड़ीं हैं। दूधो नहाओ, पूतों फलो का आशीर्वाद देते हुए रूपा  को भींच लेतीं  हैं। रूपा  सच में बहुत सुकुमार है यही सोचती उसके मंगल की कामना करते उनकी छाती दरक रही है लेकिन अपने घर लड़की को जाना ही होता है कब तक वे उसको अपने पास रख पाएंगीं।  पूरे घर में औरतों के रोने की आवाज़ें भर गयीं हैं। विदाई पर रोना परम्परा है यह बात सारीं औरतें जानतीं हैं। जो नहीं रोयेगा उसको कठकरेजी कह दिया जाएगा , वे  यह भी जानती हैं .
केकरा रोअला से गंगा नदी बहि गइलीं, केकरे जिअरा कठोर।
आमाजी के रोअला से गंगाजी बहि गइलीं, भउजी के जिअरा कठोर।
सखिया -सलेहरा से मिली नाहीं पवलीं, डोलिया में देलऽ धकिआय।
सैंया के तलैया हम नित उठ देखलीं, बाबा के तलैया छुटल जाय।          
          रूपा की भाभी सुलोचना औरतों का रोना-गाना सुनती  रोती  हुई रूपा को विदाई के लिए  तैयार करने  में जुटी  है।  अब अकेले कैसे कटेंगे  इस घर में रात दिन। सास का बक्सा बंद करती,  रोती अपनी  ननद-सखी का जाना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। भाभी से भेंटकर अलग होते रूपा की रुलाई तोरोके नहीं रुक रही है । सबसे बढ़कर भाभी ही हो गयी ? गांव की औरतों को यह तो बिलकुल न भाया। शहर में पाली बढ़ी सुलोचनासमझ ही  पाती थी कि औरतेंभेंटते समय  गातीं हैं कि  रोतीं हैं। लेकिन रूपा  के मुंह से आवाज़ भी नहीं निकली है। बस आँखों से अविरल आंसूं बह रहे हैं  उन्हीं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।  सुदर्शन  मिसिर से देर तक गले लगी रही रूपा  और छोटे भाई के भी। कार खडी है।  गहनों , भारी साडी से लदी-फंदी चेहरा ढंके गाड़ी में बैठी   रूपा आज दूसरे ही रूप में है ।  सारी  औरतें अपने अपने घर की ओर चल दीं।  लेकिन दुखंता फुआ  की  दालान में चौपाल न लगे तो कैसे खाना पचे  ए भाई ! गांव की नई लड़कियां भी बदमास हैं पीठ पीछे सुखंता फुआ कहतीं हैं और फुआ के सामने दुखंता फुआ।दुखंता फुआ बाल विधवा हैं और छोटी उम्र से ही नैहर ही उनका सब कुछ है।  वहीं गुजर बसर है।
      "अपने  गांव घर का मान रख पायेगी"?  अमरावती  फुसफुसा ही पड़ीं   इसका आदमी तो पहली रात ही इसके सारे कारनामे जान लेगा। आदमियों को बहुत तजुर्बा होता है।  वे खायी खेली लड़की को एक निगाह में जान लेते हैं।"
     "निगाह तो क्या बहिन देह कोई पराया मर्द जो  छुवे भी रहेगा तो आदमी भला वह  जाननलेगा " ? पारबता बोलीं - "उनको तो बहुत देह छूने का तजुर्बा न होता है।" सब  खिलखिला कर ऐसे हंसने लगीं जैसे  सबसे बड़ाकोईचुटकला हो  गया  और   बहुत मजेदार बात कह दी हो पारबती ने।
    "अपने गांव की इज्जत बचा के रखें  हम लोग कुछ और थोड़े ही चाहते हैं।  इस गांव की लड़कियां जहाँ भी गयीं हैं नाम कुनाम नहीं किया है।  भले यहाँ कैसे  भी  रहीं हों तो क्या। अपने घर जाकर सब सह लिया और निभा लिया है" दुखंता फुआ बोलीं।
लालमणि बोली " इनको जिस दिन उसने पूरा  चूस लिया बस उसी दिन निकाल बाहर करेगा।  आखिर आवारागर्दी से बाज़तो आएंगीनहीं। मायके वालीवहाँमौज मिलेगी इनको भला ! जब आदत खराब हो तो कोई लाख रोकना चाहे  रोक नहीं सकता है किसी तरह. सुना कई देवर हैं"।
 मालती  भी वहीँ आकर बैठ गयी है।  औरतों के आधे चेहरे ढके हैं। सबकी बात सुनते मालती चिहुंक उठती है - "क्या ? घर बिना सास का है ? और ससुर "? "ससुर तो हैं।  लेकिन ससुर क्या दिनभर इनकी  रखवाली करेंगे . ये तो उड़ती चिड़ियाँ हैं" खखारती हुई रमोला बोल पड़ीं। दुखंता फुआ फिर बोलीं - "देखो किसी की  भी लड़की हो बाकिर अपने घरे-दुआरे सुखी रहे लेकिन हाँ महतारी का करम भी कुछ होता है।  इनकी महतारी को हम तब से जान रहे हैं जब से वे डोली से उतरीं। तभी हाथ पैर सब खुले थे ।कोई लाज-लिहाज ही नहीं था । बस मिसिर की इज्जत खातिर मुंह जरूर ढका रहा।  हँसे तो इनको हँसी गांव के पच्छू के ढाल तक सुनाये।  तो जब माई  ऐसी तो धिया काहे न हो वैसी। उहे जौन  कहावत है - जइसन माई वइसन धीया जइसन कांकर वइसन बीया।अपनी  सास के साथ ऐसी बैठी रहतीं थीं जैसे कि पतोहू  नहीं बेटी हों"।  
                आंसू सूखने के बाद औरतें  दूसरे रूप में हैं . दुखंता फुआ के घर चाय चढ़ गयी है।  सुड सुड चाय पीतीं वे जल्दी घर की ओर निकल लेना चाहतीं हैं।मनबदल गया है।  सबेरे सबेरे खूब घूम-घाम हो गयी  - अब घर चलें काकी।  कह के सुनंदा उठी तो धीरे धीरे सारी  औरतें गम्भीर और मंथर चाल से गांव गांव की पतली गली के नाली-पड़ोहा  बचातीं अपने-अपने घरों  की ओर चल दीं   .
                                  एक साल बीत गया और रूपा की ससुराल से  कोई शिकायती ख़त भी न आया. यह तो अब उलटा लगने लगा था। इस बीच अलबत्ता यह खबर ज़रूर आ गयी कि रूपा के बेटा हुआ है। जो सोचा वह न हुआ।अब औरतें मायूस होने लगीं हैं।उनकी पंचायत की लहकघट गयी थी
  बेमौसम ही मौसम ठंढा हो गया था।पंचायत के लिए  कोई तीखा चटपटा गर्म मसाला नहीं रहता तो स्त्रियों की दुपहरिया बेरंग हो जाती है।  इस बीच उन्हें  काम चलाने के लिए कई  चटपटे मसाले मिले। गांव में लड़कियों की  कमी कहाँ है। जब लड़कियों की  कमी नहीं तो लड़कों कीक्यों होगी। जब दोनों हैं तो गर्मागर्म खबरें भी होंगीं ही लेकिन रूपा जैसी लड़की अपने अंजाम तक नहीं पहुंची यह सवाल गांव की छाजन में खोंस दिया गया है। समय समय पर  सवाल छाजन से उतार कर टटोलने लगतीं हैं औरतें ।
         रूपा बस एक बार दो दिन के लिए आयी तो खूब  खुश और स्वस्थ थी।  कुछ मोटी भी हो गयी थी . दो दिनों में ही वापस चली गयी।  किसी से मिलने भी न गयी  तो गांव की औरतें फुसुर  फुसुर कर के रह गयीं। इतना घमंड हो गया है बेटा  जो हुआ है। माँ बेटी के पांव जमीन परकहाँ हैं।  देखती हो न राम नरेश की मेहरारू कितना हंस हंस सबसे बतियाती है , बाप रे, बोली में  तो ऐसी चाशनी बहती है कि कौन न भूल   तभी तो राम नरेश भी गुलाम हैं।  हंसती है तो आँख भी हंसती है उसकी। तब सुरेखा  ठमक कर बोली –

" लेकिन जब आँख में पानी नहीं है तो ऐसा हंसना किस काम का "।
                    रूपा   विदा तो हो गयी  आधा रास्ता ख़तम होते होते नैहर भी छूट गया।  अब जहाँ जा रही है वहाँ की चिंता सताने लगी थी   रास्ते भर रूपा को एक चिंता सताती रही। मर्दों के घर को सम्भालना बहुत कठिन होगा ।रह रह कर बगल में बैठे नए साथी को भी देख लेती थी।यह  फकीरे जैसा नहीं लगता। पता नहीं कैसा होगा।
   कैसे लोग  होंगे।  बड़के कक्का जैसे गुस्से वाले होंगे या   उसके दोस्तों जैसे। उसको अपने सारे सखा याद आने लगे।  यहाँ उसके चार देवर हैं  लेकिन  उसके दोस्तों जैसे थोड़े होंगे। यही सब सोचती डरती घबराती  अम्मा की हिदायतें याद करती रूपा  ने   ससुराल  में पांव रखा।  पड़ोसकी देवरानी  जिठानी जैसे रिश्तों ने उसको सम्भाला। रूपा को  ससुराल के लोग भले लगे।  रूपा को  कोई क़ैद पसंद कहाँ लेकिन वह बिखरा हुआ घर।  रूपा ने सब समेटना बटोरना शुरू किया कि एक छिन  की भी फुर्सत नहीं मिली।   एक सप्ताह के भीतर घर घर हो गया।  सुई से लेकरकुदाल तक की  जगह  तय हो गयी।  महेंद्र पांडे एकदम तृप्त हो गए उन्हें रूपा में  बेटी  का रूप मिलने लगा ।  घर पहले जैसा हो गया जैसा महेंद्र  पांडे  की पत्नी के जीते था।  रूपा खुद भी हैरान।  उसको तो घर के काम करने का शऊर  नहीं था।  वहाँ अम्मा माँ की डाँट खाती थी जब शामहोने पर धीरे से घुसती थी तब माँ बरसने लगती  थी लेकिन तभी पिता आकर माँ की ऊंची आवाज़ पर अपनी शांत आवाज़ से ठंढा पानी डाल देते थे। " अरे, खेल घूम लेने दो लड़की को।  ससुराल जाकर तो नहीं कर पायेगी न यह सब"।  " नाक कटा रही है घूम घूम। बैताल बनी रहती हैदिनभर।  तुम क्या जानो।"अम्मा गुस्से में कहती।  
        गांव की  प्रपंची  औरतों की आस निराशा में बदल गयी। लौटकर नहीं आयी रूपा।  हाँ आयी तो उसकी तारीफ आयी।  ससुर आये थे।  रूपा ने घर को स्वर्ग बना दिया है । वह रूपा तो है ही आपने लक्ष्मी  भी  भेजी है।  औरतें हक्का बक्का हैं। लेकिन अब फुआ की  पंचायत में जोर परहै चर्चा । वे तो हवा के रुख के साथ बहतीं हैं।
                  अब प्रपंच  में हवा दूसरी बहने लगी है लेकिन ऐसे जैसे उस लड़की में अवगुण होते तो ससुराल में टिकती ? अब औरतों में फूट पड़  रही है। तब जो यहाँ वहाँ लड़कों के साथ पकड़ाती थी उसका क्या ?
“सब झूठ था  जब हमने नहीं देखा अपनी आँख से तब झूठे न था"।  " ए,  बहिन  तुम्हीं न आयी थी दौड़ती हुई कि  भुसवल में पकड़ायी है"।रमोला और अमरावती के बीच विवाद हो गया।  
"पागल हो ? उसकी अम्मा भी तो वहीँ थी।  किसी ने झूठे जाकर उसकी अम्मा  से कह दिया था कि तुम्हारी बेटी भुसवल में फकीरे के साथ है।  तो इतना सुन के वे पगला गयीं थीं और दौड़ कर भुसवल में गयीं तो रूपा भूसा  के ढेर के  बीच में धंसी हुई थी । "और फकीरे ?" अमरावती नेपूछा।  
 "उसकी अम्मा जोर से चिल्लाई कि  का कर रही है वहाँ ।  रूपा  हंसी और बोली .  अम्मा आओ न यहाँ से नीचे गिरने में बहुत मजा आ रहा है ? उसकी अम्मा तो गुस्से में

कहानी प्रज्ञा पाण्डेय जी की है..और टिप्पणी जयश्री जी की है

30.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ ब्रज श्रीवास्तव जी की है..और उन पर टिप्पणी अलक नंदा साने जी ने की है...

मित्रो बातचीत के लिए आज की कविताएँ
और टिप्पणी पोस्ट कर रहा हूँ....

कविताएँ
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तुम.

तुम अपने पैरहन पर मोहित हो,
अपने कहन के अंदाज़ पर किस कदर फिदा हो.
बादलों की तरह नहीं होना है क्या
अपनी तृप्ति से किस कदर तृप्त हो

बुद्धि न हुई एक पर्दा हुई
जिसके पीछे करते हो तुम निक्ममी कार्रवाई

उम्र का विराट हंसता है
कि तुम कैसे कैद होकर रह गये हो लम्हों में.

तुम चतुराई बरतते हो बाहर आते हुए
शिकारी का मन लेकर जाते हो.
और तुम्हें अब तक पता ही न चला
कि तुम खुद ही शिकार हो चुके हो.
०००

संसार ही हूँ.

अपनी अलग सूरत लिए
अनगिनत विचार हैं
लिए हुए अपने इरादे

मुझे पानी की ज़रूरत है
जैसे कि समुद्र को जरूरत है
इतनी ज्यादा जगह की

भावनाओं की कई टन हवा बही
मेरे अंदर
इच्छाओं की फली- फूली फसलें
कट गईं
जो मासूम पहचान के संग उगी थीं कभी

बहुत तप्त हूँ मैं
सूरज के
गोले के संवहन से

बहुत शीतल हूँ मैं
पाकर मनचाहा स्नेह
बहुत नम हूँ मैं
बर्फ के स्वभाव पर चकित होते हुए

अपने चेतन में स्थित हूँ
अपनी ही अनेक कोशिकाओं से
कर नहीं सका हूँ मुलाकात
जाने कहाँ कहाँ रहा हूँ जड़

उस दुनिया में विलय हो जाने से
करते हुए गुरेज़
एक संसार ही हूँ मैं भी.

००००

स्मृति ने.

कई बार कहना चाहा
अलविदा
कई बार कह भी दिया.

हर अलविदा ने स्वीकारा नहीं
स्वयं को
उसने फिर एक स्थिति
पैदा कर ली मुलाकात की
हालाँकि वहाँ अलविदा का सन्नाटा
फहरा रहा था

चहूंओर फुसफुसाता रहा कान में
कि लो अब अन्तिम विदा
अब सांस का एक हिस्सा भी
नाजायज है
एक दृष्टि भी दरकिनार कर सकती है
रही सही चीजों से

हवा पानी आग मिट्टी
आए बारी बारी से समझाने के लिए
कि अब बेदखल हो जाओ

विछोह का यह विलाप सबने सुना
सब विवश हैं
परिवेश के दरबार में
सब सहमत हुए इस एलान से

केवल स्मृति ने दिया सहारा
जिसकी आगोश में सुना मैंने
कोई जरूरत नहीं है इधर
कहने की उसे अलविदा.
०००
07:23, Jan 29 - Satyanarayan

टिप्पणी                                                               
पहली कविता ''तुम'', एक दार्शनिक अंदाज़ में , उन लोगों पर व्यंग्य करती-सी लगती है, जो सिर्फ बुद्धि और तर्क के आधार पर ज़िंदगी बिताते हैं। अक्ल पर पर्दा पड़ना यह मुहावरा ख़राब अर्थों में इस्तेमाल होता है, लेकिन 'बुद्धि का पर्दा' यह शब्द प्रयोग एक आड़ के लिए करके प्रचलित अर्थ निहायत खूबसूरती से बदल दिया गया है। निकम्मे काम करनेवाले किस तरह अपनी बुद्धि को परे रखकर कुटिलता  करते हैं यह सिर्फ दो पंक्तियों में स्पष्ट हो जाता है। बादलों की तरह नहीं होना है क्या , इन पंक्तियों का संदर्भ समझ में नहीं आया। कविता की सबसे उम्दा पंक्तियाँ है --- उम्र का विराट हँसता है और इन्हीं पंक्तियों में जीवन का अटल सत्य सामने आता है।  एक छोटी कविता अपने आप में बहुत कुछ कह जाती  है और कवि के शब्दों में कहें तो उसके कहन  के अंदाज़ पर फ़िदा होने को जी करता है।

दूसरी कविता ''संसार ही हूँ'' ऐसी ही एक गंभीर कविता है। यह कविता भी कवि के दार्शनिक मन को दर्शाती है। पंच तत्वों में से जल,वायु,अग्नि को अपने होने से जोड़कर कवि ने एक अद्भुत संसार रचा है। यदि शेष दो तत्वों को लेकर कोई संलग्नता बन पाती तो यह कविता पूर्णता को प्राप्त कर सकती थी। इन पंक्तियों में कवि ने जड़ और चेतन का विरोधाभास बड़े सुंदर तरीके से व्यक्त किया है ----

अपने चेतन में स्थित हूँ
अपनी ही अनेक कोशिकाओं से
कर नहीं सका हूँ मुलाकात
जाने कहाँ कहाँ रहा हूँ जड़

फिर भी लगता है कि  एक अच्छा विचार लेकर चला कवि कविता का पूरा निर्वाह करने में असफल रहा है। इस कविता में और अधिक निखार की गुंजाईश बाकी दिखाई देती है.  आलोच्य कविताओं को देखकर लगता है कि कवि को  छोटी कविताएँ पसंद हैं और विस्तार के भय से इसे अकस्मात समेट  लिया गया है। अक्सर वैचारिक कविताएँ लम्बाई के डर से अचानक  समाप्त कर दी जाती हैं , लेकिन तब मुक्तिबोध की ''अँधेरे में'' या देवतालेजी की ''भूखंड तप रहा है'' अनायास याद आती है और यहीं नहीं हाल ही में तुषार धवलजी ने बिजूका के लिए जो ऑडियो प्रस्तुत किया है , वह कविता भी काफी लम्बी है।

तीसरी और अंतिम कविता ''स्मृति'' एक साधारण कविता नहीं है। यूँ तो कवि की एक भी कविता एक बार पढ़कर छोड़ देने जैसी नहीं है।  न तो वे सामान्य हैं और न ही सरल , लेकिन स्मृति को पढ़ने के लिए मस्तिष्क पर कुछ जोर अलग से डालना पड़ता है। इस कविता में भी दार्शनिकता पूरी शिद्द्त  के साथ मौज़ूद है , पंच तत्व की अवधारणा भी है। बिछोह और विदा का शाश्वत सत्य है , लेकिन इन सबके साथ साथ स्मृति भी अभिन्न रूप से चल रही है और अंत में यही स्मृति एक परिजन की तरह सहारा देती है , आश्वस्त करती है।

कोई जरूरत नहीं है इधर
कहने की उसे अलविदा.

 कविता की ये अंतिम पंक्तियाँ चौंकाती है और कविता दोबारा पढ़ने को मजबूर करती हैं।  तीनों कविता के भाव करीब-करीब एक समान हैं।  तीनों में सांसारिकता है, ध्रुव सत्य है और चरम वैचारिकता है , बावज़ूद इसके तीनों कविताएँ अलग-अलग हैं।  उनकी शब्द रचना अलग है। कविताएँ दोबारा पढ़ने को मजबूर करती हैं , सोचने को विवश करती है। भाषा सरल है , कथ्य स्पष्ट है।  कठिन विषयों को   कवि ने सहज उकेरा  है और इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

कविताएँ ब्रज श्रीवास्तव जी की है..और उन पर टिप्पणी
अलक नंदा साने जी ने की है...
दोनों साथियो  का..और समूह के बाक़ी मित्रो का आभार....

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल