मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ प्रस्तुत है
1 -
डरती हूँ उन लोगों से
जो करते हैं दावा स्वयं को
प्रगतिशील व विचारवान होने का
और दूसरे ही पल बदल लेते हैं
अपने को उस समाज के
बुद्धहीन व अर्थहीन ढांचे में,
जो करता है छींटाकसी
दुनिया को उत्पादित करने वाली इकाई पर |
मानती रहे उसकी हर बात
पूजता है एक देवी की तरह
अगर वहीँ करती है
अपने मन की बात
कहता है उसे
कुल्टा और चरित्रहीन |
2 -
चारों तरफ है
किसी भयानक तूफ़ान के,
गुजर जाने के बाद का
घोर सन्नाटा |
दिख रहे है सबके
झुलसे हुए चेहरे
एक दूसरे से डरे सहमे
कर रहे हैं ढोंग
खुश होने का |
लेकिन
कहीं कोने में बैठा है |
वही डर
जो, कभी भी किसी दिशा से
धारण कर सकता है
अपना विराट रूप |
3 -
वे कर रहे है दावा
एक प्रेमी होने का
खा रहे है कसमें
हर कदम साथ चलने की
दे रहे है आवश्वासन
एक सच्चे मित्र होने का
लेकिन
ख़त्म नहीं कर पा रहे है
अपने भीतर बैठे
उस पुरुष को
जो, हर पल ओढ़े रहता है|
एक पुरुषवादी अधिकारों का लबादा |
4-
आज वह बहुत खूबसूरत भी दिखेगी,
पहले नहीं |
वे , उसका दिन में
चार बार हाल भी पूछेंगे |
उसके लिए कोई अच्छा सा
तोफहा भी ले जायेंगे |
कुछ ढंग के शब्द भी सोचेंगे
जो , उसके मन को भाये |
क्योंकि
आज वीक एंड है
उन्हें , उसकी जरुरत है |
5 -
आधुनिक लड़की
जीन्स पर कट स्लीव टॉप
आँखों पर बड़े लैंस का सफ़ेद चश्मा
कन्धों पर झूलते घुंघराले घने बाल
और एक हाथ में
किताबों से भरा लटकता हुआ पर्स
कान पर लगाए मोबाइल
बतियाती हुई निकल जाती है
गली से बाहर
तेज हवा की तरह
मैं करता हूँ उसका पीछा दूर तक
कि
वह देखेगी मुझे पीछे मुड़कर
पर नहीं देखती वह
चलती जाती है अपने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
अपने मित्रों के अनुसार
मैं भी चाहता हूँ उससे बतियाना
पास बैठकर उसको छूना
हर कीमत के साथ
लेकिन, अब कुछ दिनों से
दिखाई नहीं देती वह
मैं ढूंढता हूँ उसे
देखना चाहता हूँ एक झलक उसकी
अपनी प्रबल इच्छा के साथ
तभी, सुनाई देता है एक शोर
गली के बाहर
चली आती है एक भीड़
हाथों में तख्ती लिए
मेरी तरफ
भीड़ में है सबसे आगे
मेरी वह कल्पना
हाथ में झंडा लिए
जिस पर लिखा है
नहीं सहेंगे अब अत्याचार
स्त्री , पुरुष एक समान
हम भी है आखिर इन्सान
मैं , उस भीड़ को
जाता हुआ देखता रहा
स्वर मेरे कानों में
देर तक गूंजते रहे
अब अक्सर दिखाई देती है वह
कभी विचार गोष्ठियों में
मजदूरों के सम्मेलनों में
तो कभी दलित बस्तियों में
1 -
डरती हूँ उन लोगों से
जो करते हैं दावा स्वयं को
प्रगतिशील व विचारवान होने का
और दूसरे ही पल बदल लेते हैं
अपने को उस समाज के
बुद्धहीन व अर्थहीन ढांचे में,
जो करता है छींटाकसी
दुनिया को उत्पादित करने वाली इकाई पर |
मानती रहे उसकी हर बात
पूजता है एक देवी की तरह
अगर वहीँ करती है
अपने मन की बात
कहता है उसे
कुल्टा और चरित्रहीन |
2 -
चारों तरफ है
किसी भयानक तूफ़ान के,
गुजर जाने के बाद का
घोर सन्नाटा |
दिख रहे है सबके
झुलसे हुए चेहरे
एक दूसरे से डरे सहमे
कर रहे हैं ढोंग
खुश होने का |
लेकिन
कहीं कोने में बैठा है |
वही डर
जो, कभी भी किसी दिशा से
धारण कर सकता है
अपना विराट रूप |
3 -
वे कर रहे है दावा
एक प्रेमी होने का
खा रहे है कसमें
हर कदम साथ चलने की
दे रहे है आवश्वासन
एक सच्चे मित्र होने का
लेकिन
ख़त्म नहीं कर पा रहे है
अपने भीतर बैठे
उस पुरुष को
जो, हर पल ओढ़े रहता है|
एक पुरुषवादी अधिकारों का लबादा |
4-
आज वह बहुत खूबसूरत भी दिखेगी,
पहले नहीं |
वे , उसका दिन में
चार बार हाल भी पूछेंगे |
उसके लिए कोई अच्छा सा
तोफहा भी ले जायेंगे |
कुछ ढंग के शब्द भी सोचेंगे
जो , उसके मन को भाये |
क्योंकि
आज वीक एंड है
उन्हें , उसकी जरुरत है |
5 -
आधुनिक लड़की
जीन्स पर कट स्लीव टॉप
आँखों पर बड़े लैंस का सफ़ेद चश्मा
कन्धों पर झूलते घुंघराले घने बाल
और एक हाथ में
किताबों से भरा लटकता हुआ पर्स
कान पर लगाए मोबाइल
बतियाती हुई निकल जाती है
गली से बाहर
तेज हवा की तरह
मैं करता हूँ उसका पीछा दूर तक
कि
वह देखेगी मुझे पीछे मुड़कर
पर नहीं देखती वह
चलती जाती है अपने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
अपने मित्रों के अनुसार
मैं भी चाहता हूँ उससे बतियाना
पास बैठकर उसको छूना
हर कीमत के साथ
लेकिन, अब कुछ दिनों से
दिखाई नहीं देती वह
मैं ढूंढता हूँ उसे
देखना चाहता हूँ एक झलक उसकी
अपनी प्रबल इच्छा के साथ
तभी, सुनाई देता है एक शोर
गली के बाहर
चली आती है एक भीड़
हाथों में तख्ती लिए
मेरी तरफ
भीड़ में है सबसे आगे
मेरी वह कल्पना
हाथ में झंडा लिए
जिस पर लिखा है
नहीं सहेंगे अब अत्याचार
स्त्री , पुरुष एक समान
हम भी है आखिर इन्सान
मैं , उस भीड़ को
जाता हुआ देखता रहा
स्वर मेरे कानों में
देर तक गूंजते रहे
अब अक्सर दिखाई देती है वह
कभी विचार गोष्ठियों में
मजदूरों के सम्मेलनों में
तो कभी दलित बस्तियों में
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