मित्रो आज की कविताएँ प्रस्तुत हैं
~~ सर्दी कुछ कह जाती है ~~
सर्दी भी अजीब है
जाने से पहले कुछ बतला कर जाती है
एक पलंग पर साथ में टीवी देखना
रिमोट के लिए झगड़ा करना
गर्म रोटी के इंतज़ार में मूंगफली चबाना
ताश के गठ्ठर का फिर से गिरना
अंगीठी की आग में दिलों का पिघलना
रुके हुए आंसू को फिर से एक बार पोछना
रज़ाई की गर्माहट में खींचा तानी
वहीँ पेंसिल और पेन की टकराव में तनातनी
टूटे प्याले में चाय की सुड़ सुड़
बहार पत्तों के बीच सर्र सर्र
अंदर किताबों के पन्नो की झीकं झीकं
बाहर हो चला अँधेरा
घर में है अभी उजाला
सर्दी भी कुछ कह जाती है
सबको जोड़ जाती है
~~~ पहचान ~~~
सोचा न था यूँ हम खाली बैठेंगे , शब्दों में खो कर अपने को ढूढेंगे |
आज का समय कुछ इस तरह गुजरा , सारा मंजर खुद ही सामने आ बैठा |
ये है हकीकत जिसकी कोई पहचान नहीं, जिसे हम पहचान समझे वह हकीकत है ही नहीं |
तराजू में तौलते हुए अपनी शख्सियत , कहीं दूर निकल गए जिसका कोई भार नहीं |
पलट कर देखा तो ये समझ आया , अकेले थे हम हमेशा बस साथ का एहसास मात्र था |
डूबने से रोका बहुत अपने को, पर किनारा कहीं नज़र नहीं आया |
***********************************
~~ आईना झूठ नहीं बोलता ~~
आज तो आईना भी झूठ नहीं बोल सकता , आँखों के नीचे इन गहरे गाढ़े काले धब्बो को देखकर |
नाखून पोलिश तो नहीं परन्तु कुछ उखड़े हुए से नाखून जैसे पूछ रहे हो कहाँ गया तुम्हारा श्रृंगार |
काम की उलझन ऐसी हुई की फिर न सुलझा सकी इन रूखे कुछ सफ़ेद बेजान केशों को |
जो होंठ कभी गीले शिकवे करते न थकते थे वह आज सूखे हुए मुरझाये गुलाब की पंखुरी की तरह बस पानी का इंतज़ार कर रहें हैं |
जो पाँव कभी कालीन से उतारते नहीं थे आज उन्ही पाँव की एड़ियो में बिवाइयां आ गई हैं |
इन कोमल हाथों में आज किस्मत की गहरी लकीरें साफ़ साफ़ अपनी कहानी सुना रहीं हैं |
कभी सोचा न था इस कदर में जिम्मेदारी निभाते निभाते थक जाऊँगी कुछ पाने के लिए खुद को ही खो दूँगी |
कल था जो मेरा योवन वो आज भी हो सकता है , कुछ फुरसत के पल अपने लिए भी निकल सकता है |
इतनी भी क्या मसरूफियत की अपने को ही भुला दिया , मैंने क्या खोया क्या पाया |
आइना तो आज भी झूठ हीं बोलता |
टिप्पणी
सर्दी कुछ कह जाती है ...
सर्दी कविता में कवि की कुछ स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, जिसे वह पंरी शिद्दत से महसूस कर पाती है ।इसमें स्मृतियाँ शेष है तो जीवन भी ।सम्बन्धों की निकटता और निजता अन्य मौसम की अपेक्षा वे सर्दियों में ज्यादा आत्मियता से महसूस कर पाती है -जैसे विचारों और भावों को फलीभूत करती है-कविता ।
पहचान...
पहचान कविता नदी के ठीक बीच से गुज़र रही स्त्रीमन की कविता है । जिस उम्र में पुरूष पूर्णता पाता है उसी उम्र में स्त्री अपने आपको आधी अधूरी महसूस करती है ।संतान और घर की खुशियों में उसकी खुशियां कहाँ दफ़न होकर रह जाती है वह समझ ही नहीं पाती । इस तरह न समझ में आ सकने वाला दुख उसे कचोटता रहता है ।
आईना झूठ नहीं बोलता...
नहीं बोलता ।
आईना वर्तमान है ।
वर्तमान एक पल पीछे,न एक पल आगे । तटस्थ । जब देखो तब वर्तमान । हमारे समाज में कमोवेश स्त्रियों की यही स्थिति है कि घर-गृहस्थी के बोझ तले इस तरह दब जाती है कि अपनी इच्छाओं और भावनओं स्थापित कर पाना उनकी सामर्थ में नहीं रह पाता ।परिवार के सुख में अपना सुख, परिवार के संघर्ष में अपना संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लेती है मानों उनका अपना स्व-अस्तित्व ही न हो । कुछ इसी तरह के मनोभाव की स्त्री आईने के सामने खड़ी होती तो सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाती ।
अन्त में तीनों कविता पर व्यक्तिगत रूप से कहना चाहूँगा-कविता की शुरूआत इसी तरह होती है ।ज्य़ादा से ज्य़ादा पढ़ना, पढ़े हुए को गुनना, गुनकर कहना और कहन में विविद्यता लाना ताकि भीड़ में गुमें नहीं,उबरे ।यह शुरूआती दौर की कवितायें है लकिन बेहद सम्भावनाओं से भरी हुई ।आगे बेहतरीन कवितायें पढ़ने को मिलेगी ।
कवितायें हमारे समूह की ही साथी ज्योतिमा प्रकाश की
हैं... टिप्पणी समूह के ही साथी श्री राजेश झरपुरे जी ने की थी...
मित्रो आपसे पुनः अनुरोध...यदि आप इस व्यवस्था को पसंद करते हैं...तो अपना रचनात्मक सहयोग दें....टिप्पणी करने वाले
साथी भी आगे आयें....यह ज़रूरी है...
दूसरे समूह के साथियो की रचना और टिप्पणी हमेशा साझा नहीं की जा सकती....
रचना भेजने के लिए..bizooka2009@gmail.com
है
16.01.2015
~~ सर्दी कुछ कह जाती है ~~
सर्दी भी अजीब है
जाने से पहले कुछ बतला कर जाती है
एक पलंग पर साथ में टीवी देखना
रिमोट के लिए झगड़ा करना
गर्म रोटी के इंतज़ार में मूंगफली चबाना
ताश के गठ्ठर का फिर से गिरना
अंगीठी की आग में दिलों का पिघलना
रुके हुए आंसू को फिर से एक बार पोछना
रज़ाई की गर्माहट में खींचा तानी
वहीँ पेंसिल और पेन की टकराव में तनातनी
टूटे प्याले में चाय की सुड़ सुड़
बहार पत्तों के बीच सर्र सर्र
अंदर किताबों के पन्नो की झीकं झीकं
बाहर हो चला अँधेरा
घर में है अभी उजाला
सर्दी भी कुछ कह जाती है
सबको जोड़ जाती है
~~~ पहचान ~~~
सोचा न था यूँ हम खाली बैठेंगे , शब्दों में खो कर अपने को ढूढेंगे |
आज का समय कुछ इस तरह गुजरा , सारा मंजर खुद ही सामने आ बैठा |
ये है हकीकत जिसकी कोई पहचान नहीं, जिसे हम पहचान समझे वह हकीकत है ही नहीं |
तराजू में तौलते हुए अपनी शख्सियत , कहीं दूर निकल गए जिसका कोई भार नहीं |
पलट कर देखा तो ये समझ आया , अकेले थे हम हमेशा बस साथ का एहसास मात्र था |
डूबने से रोका बहुत अपने को, पर किनारा कहीं नज़र नहीं आया |
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~~ आईना झूठ नहीं बोलता ~~
आज तो आईना भी झूठ नहीं बोल सकता , आँखों के नीचे इन गहरे गाढ़े काले धब्बो को देखकर |
नाखून पोलिश तो नहीं परन्तु कुछ उखड़े हुए से नाखून जैसे पूछ रहे हो कहाँ गया तुम्हारा श्रृंगार |
काम की उलझन ऐसी हुई की फिर न सुलझा सकी इन रूखे कुछ सफ़ेद बेजान केशों को |
जो होंठ कभी गीले शिकवे करते न थकते थे वह आज सूखे हुए मुरझाये गुलाब की पंखुरी की तरह बस पानी का इंतज़ार कर रहें हैं |
जो पाँव कभी कालीन से उतारते नहीं थे आज उन्ही पाँव की एड़ियो में बिवाइयां आ गई हैं |
इन कोमल हाथों में आज किस्मत की गहरी लकीरें साफ़ साफ़ अपनी कहानी सुना रहीं हैं |
कभी सोचा न था इस कदर में जिम्मेदारी निभाते निभाते थक जाऊँगी कुछ पाने के लिए खुद को ही खो दूँगी |
कल था जो मेरा योवन वो आज भी हो सकता है , कुछ फुरसत के पल अपने लिए भी निकल सकता है |
इतनी भी क्या मसरूफियत की अपने को ही भुला दिया , मैंने क्या खोया क्या पाया |
आइना तो आज भी झूठ हीं बोलता |
टिप्पणी
सर्दी कुछ कह जाती है ...
सर्दी कविता में कवि की कुछ स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, जिसे वह पंरी शिद्दत से महसूस कर पाती है ।इसमें स्मृतियाँ शेष है तो जीवन भी ।सम्बन्धों की निकटता और निजता अन्य मौसम की अपेक्षा वे सर्दियों में ज्यादा आत्मियता से महसूस कर पाती है -जैसे विचारों और भावों को फलीभूत करती है-कविता ।
पहचान...
पहचान कविता नदी के ठीक बीच से गुज़र रही स्त्रीमन की कविता है । जिस उम्र में पुरूष पूर्णता पाता है उसी उम्र में स्त्री अपने आपको आधी अधूरी महसूस करती है ।संतान और घर की खुशियों में उसकी खुशियां कहाँ दफ़न होकर रह जाती है वह समझ ही नहीं पाती । इस तरह न समझ में आ सकने वाला दुख उसे कचोटता रहता है ।
आईना झूठ नहीं बोलता...
नहीं बोलता ।
आईना वर्तमान है ।
वर्तमान एक पल पीछे,न एक पल आगे । तटस्थ । जब देखो तब वर्तमान । हमारे समाज में कमोवेश स्त्रियों की यही स्थिति है कि घर-गृहस्थी के बोझ तले इस तरह दब जाती है कि अपनी इच्छाओं और भावनओं स्थापित कर पाना उनकी सामर्थ में नहीं रह पाता ।परिवार के सुख में अपना सुख, परिवार के संघर्ष में अपना संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लेती है मानों उनका अपना स्व-अस्तित्व ही न हो । कुछ इसी तरह के मनोभाव की स्त्री आईने के सामने खड़ी होती तो सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाती ।
अन्त में तीनों कविता पर व्यक्तिगत रूप से कहना चाहूँगा-कविता की शुरूआत इसी तरह होती है ।ज्य़ादा से ज्य़ादा पढ़ना, पढ़े हुए को गुनना, गुनकर कहना और कहन में विविद्यता लाना ताकि भीड़ में गुमें नहीं,उबरे ।यह शुरूआती दौर की कवितायें है लकिन बेहद सम्भावनाओं से भरी हुई ।आगे बेहतरीन कवितायें पढ़ने को मिलेगी ।
कवितायें हमारे समूह की ही साथी ज्योतिमा प्रकाश की
हैं... टिप्पणी समूह के ही साथी श्री राजेश झरपुरे जी ने की थी...
मित्रो आपसे पुनः अनुरोध...यदि आप इस व्यवस्था को पसंद करते हैं...तो अपना रचनात्मक सहयोग दें....टिप्पणी करने वाले
साथी भी आगे आयें....यह ज़रूरी है...
दूसरे समूह के साथियो की रचना और टिप्पणी हमेशा साझा नहीं की जा सकती....
रचना भेजने के लिए..bizooka2009@gmail.com
है
16.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल
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