4.2.15

कविताएँ परमेश्वर फुंकवाल जी की और टिप्पणी पंकज मिश्र जी की ..


आज की कविताएँ और टिप्पणी भी पोस्ट कर रहा हूँ....उम्मीद है कि आप उनकी ठीक से पड़ताल करेंगे....

मुझ सा कोई

पहले वहां से कोई आता था
तो लेता आता था मिठाई
फिर पोस्टकार्ड आने लगे
कभी ज्यादह सीख होती तो अंतर्देशीय
राखी पर कुमकुम लगा लिफाफा

एक बार तार भी आया
जा न सका

अब तो दुनिया इतनी बदल चुकी
उस ओर से कोई शब्द नहीं
इधर टेक्स्टिंग करते करते
होती जा रही है बीमारी उँगलियों में

कंपनी का हरकारा गया था
कुछ दिनों पहले उधर
मोबाइल का कोई टावर लगाने की जगह देखने
लौटने पर कहता था
वहां रहता है एक शख्स
जिसकी सूरत मुझसे मिलती है.

हम यहाँ तक

वे सभी मासूम थे
एक वयस्क हिरन यदि देखता
शेर के नवजात पिल्लों को
तो किस नज़र से देखता

एक हलके झोंके से
शुरू होते हैं बड़े से बड़े तूफ़ान

अभी अभी बोला गया एक झूठ
रिश्वत में कल मिली दौलत
आपको मिठास से मुग्ध किये है
कैसा होगा इनका सामना
समय की धूप में इनके पक जाने के बाद

अमेज़न की चींटीयां
मिल जुल कर अपने से कई गुना बड़े
तिलचट्टे को जीवित ही कर रही हैं स्वाहा

सब कुछ जानते हुए भी
कहाँ हो पाता है
भ्रम में भटकते रहने के बजाय
समय से
इनकी हद छोड़ कर भाग जाना

खुरदुरापन कुरूपता पाप
सबकी शुरूआत नर्म सुन्दर और निष्पाप थी
सोच समझ कर
पूरे होशो हवास में पहुंचे हैं हम यहाँ तक.

प्रलय

मैं हाथ की सफाई करूँगा
एक चमत्कार की तरह दिखूंगा
आप कायल हो जायेंगे
सीधी सच्ची बात कहूँगा नहीं मानेंगे

जिनके ऊपर भूत सवार है
वे बुरी आत्माओं से मुक्ति की राह दिखा रहे हैं

दुनिया की सारी बेहतरीन चीज़ें मुफ्त हैं
लेकिन आप टिकट कटाकर समागम में जाना चाहेंगे
रक्षा कवच दिव्य कुंडल की कीमत पर मोल भाव करेंगे
कृपा आने के रास्ते ढूंढेंगे
और वो रास्ते में मिलेगी तो पहचानने से इनकार कर देंगे

हथियार धर्म की नहीं
आपकी रक्षा के साधन हैं
उसके लिए तो सलीब काफी है
काफी है एक सारथी
मुरली की एक लम्बी तान
अपने सबसे प्रिय को त्याग देने का साहस

एक बच्चा भी कहीं रोए
धर्म का नाश अवश्यम्भावी


टिप्पणी                                                    
मुझ सा कोई कविता यांत्रिक समय में शब्दों को बचाने की कोशिश है। इसी के सहारे संवेदनाएं बचेगी। शब्दों की तरलता भागमभाग वाले समय के अंधड़ में कहीं गुम हो रही है। मुझ सा कोई इसी तरलता को बचाने की कोशिश करती है। यह एक कहानी का अच्छा विषय हो सकता है। मुझे लगता है कि कविता को थोड़ा और विस्तार देना चाहिए था।

हम यहां तक में ऐसे ही खुरदुरेपन का बयान है। निरंतर हमारी संवेदनाओं के छीजते जाने की व्यथा है। शुरुआत ऐसे नजरिये से होती है जो सवाल खड़ा करती है। शुरुआत सुंदर ही हुआ करती है। धीरे-धीरे वह कितनी खतरनाक हो जाती है।वीरेन डंगवाल की कविता दुष्चक्र में सृष्टा यहां याद आती है, जिसमें सब कुछ सुंदर बनाकर ईश्वर कहीं छिप गया है। यह कविता भी ठीक वैसी ही एक कोशिश है। कहन में भी यही है। सुंदरता को खत्म करके की साजिशों से आगाह भी करती है ये कविता। जो सुंदर है उसका खत्म हो जाने का अर्थ है मनुष्यता का खत्म हो जाना। कवि ने अच्छी शुरुआत की और कविता के अंत तक उस सवाल को लेकर गया। मुझे शब्दों की लय कहीं-कहीं टूटती लगी, यही वजह है कि कविता देर तक टिक नहीं पा रही है। कविता सवाल खड़े करती है बजाय ऐसे समय के सवालों से मुठभेड़ के।

धीरे-धीरे बर्बर होते गए धर्म के रूप को बेहद संवेदनशीलता के साथ प्रलय कविता सामने रखती है। कथ्य के स्तर पर कवि जो कहना चाहता है, उसे गहरे बोध के साथ कह दिया है। सबसे खास यह कि कविता में किसी तरह की उत्तेजना नहीं है। साफगोई है और अंतत: मनुष्यता को बचा लेने की जिद भी दिखती है। एक भी बच्चा कहीं रोए तो धर्म का नाश अवश्यम्भावी है। कवि यही कहना चाहता था, जिसे वह मजबूती से कह गया। हां मुझे इस कविता में पैनेपन की कमी नजर आई।

कविताएँ परमेश्वर फुंकवाल जी की और टिप्पणी पंकज मिश्र जी की ..
दोनो मित्रो और आप सभी का आभार.....
27.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

No comments: